काँगड़ा चित्रकारी का उदगम काँगड़ा से हुआ जो काँगड़ा राजवाड़े दौर की देन है। इसके फलने-फूलने का कारण बिसोहली चित्रकारी का अठारह्वीं शताब्दी में फीका पड़ जाना था।हालांकि कांगड़ा चित्रों के मुख्य केंद्र गुलेर, बसोली, चंबा, नूरपुर, बिलासपुर और कांगड़ा हैं, बाद में यह शैली मंडी, सुकेट, कुल्लू, आर्की, नालागढ़ और टिहरी गढ़वाल (मोला राम द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया) में भी पहुंच गयी, और अब इसे सामूहिक रूप से पहाड़ी चित्रकला के रूप में जाना जाता है, जो कि 17वीं और 19वीं शताब्दी के बीच राजपूत शासकों द्वारा संरक्षित शैली को दर्शाता है।
कला जगत को भारत की लघुचित्र कला एक अनुपम देन है । जम्मू से लेकर गढ़वाल तक उतर- पश्चिम हिमालय पहाड़ी रियासतों की इस महान परम्परा का वचस्व 17वीं से 19वीं शताब्दी तक रहा । छोटी-छोटी रियासतों जिनमें से अधिकांश वर्तमान हिमाचल प्रदेश मे पनपी है यह चित्रकला पहाड़ी शैली के नाम से विशव भर में विख्यात है। पहाड़ी चित्रकला के मुख्य केन्द्र थे गुलेर ,कांगड़ा, चम्बा,मण्डी, बिलासपुर, कुल्लू । कांगड़ा कलम को लघुचित्र में सबसे उत्कृष्ट माना गया है ।
मध्य अठाहरवी शताब्दी में पहाड़ी चित्रकला में एक नया मोड़ आया । चित्रकला का यह नया दौर गुलर कलम अम्युदय से हुआ। गुलेर के राजा दिलीप सिंह तथा गोवर्धन चन्द और कांगड़ा के राजा संसार चन्द ने इन चित्रकारों को समुचित प्रश्रय देकर प्रोत्साहित किया । गुलेर–कांगड़ा शैली की शीतल वर्ण योजना और लयात्मक महीन रेखाकन विस्मयकारी था। अठाहरवीं शताब्दी के उतरार्ध मे बने चित्रों में सुन्दर हरे- भरे भू-दृश्यों , पहाड़ो ,वृक्षो के झुरमुटों और सरोवरों के अंकन पर ध्यान दिया गया है।
गुलेर कांगड़ा शैली ने चित्रकला की ऊँची उड़ान भरी। उसके चित्रकार और उनके वशंजो का महान योगदान है। पंडित सेऊ के पुत्रों क्रमश: माण्क और पौत्रोफत्तु , खुशाला, कामा, गोढू, निक्का और रांझा आदि चित्रकारों ने चित्रकारी के विकास में महत्वपुर्ण भूमिका निभाई व कुशनलाल हस्तु आदि भी राजा संसार चन्द के चितरे थे । उनके पुत्र रामदयाल का नाम संसार चन्द के चित्रों में आया था।
महाराजा संसार चन्द (1775-1823) ने कांगड़ा चित्र शैली को विकास के शिखर पर पहुँचाया । महाराजा का शासन काल काँगड़ा कलम का स्वर्ण युग कहा जाता है। राजा संसार चन्द ने गुलेर के कलाकारों को अपने दरबार की ओर आकर्षित किया। राजा संसार चन्द कांगड़ा घाटी के शक्तशाली व कलापोषक राजा हुए है । उनके शासन काल मे ही कवि जयदेव की संस्कृत प्रेम कविता “गीत-गोविन्द” , “बिहारी की सतसई” ,”भगवत पुराण” , “नलदमवन्ती” व “केशवदास” “रसिकप्रिया” कवीप्रिया को चित्रों में डाला गया है। कृष्ण “विभिन्न“ रुपों में इस चित्र कला का प्रतिनिधित्व करतें हैं। राजा के साथ श्रीकृष्ण के श्रृँगारिक चित्र, राग-रानियों , रामायण , महाभारत, भागवत्त , चण्डी-उपाख्यान (दुर्गा पाठ) , देवी महत्मये व पौराणिक कथाओं पर चित्र कला तैयार हुई ।
लघु चित्र हस्त निर्मित स्यालकोटी कागज पर खनिज और वनस्पत्ति रंगो द्वारा बनाए जाते थे। तंगरम हरिताल, दानाफरग, लाजवद्द , खडिया और काजल की स्याही प्रमुख रंग थे। बाल से भी बारीक लयात्मक रेखाकण के लिए गिलहरी की पूँछ के बाल से बनी तुलिका का उपयोग किया जाता था। कई कई दिनों की महीन छुटाई के पश्चात रंग तैयार होते थे। आज तीन सौ बर्ष का समय गुज़र जाने के बाद भी इन चित्रों में पहले जैसी ताजगी और चमकदमक है।
कांगडा चित्र कला में नायिकओं की विभिन्न भाव- भावनाओ की कलाकार नें अत्यंत सुक्ष्मतम किन्तु पूर्ण अभिव्यक्त दी है। राजा के साथ श्रीकृष्ण के श्रांगारिक चित्र कांगड़ा कलम की एक महत्वपूर्ण निधि है।
तत्तकालीन शासकों के व्यक्तिगत्त चित्र उन की दिनचर्या,श्रांगारिक लीलाओं पर आधारित लघुचित्र भी इस अवधि में बने हैं। श्रीकृष्ण को जननायक बनाने में कांगड़ा कलम ने अपनी प्रखर कलात्मक रुची का प्रदर्शन किया है। लघुचित्रों को देख कर ऐसा लगता है कि कलाकार नें मुनष्य की असिमित भावनाओं का सीमित करने का सफल प्रयास किया है। ऐसा भी प्रतीत होता है कि कलाकार नेंसत्यम , शिवम, सुन्दरम का समन्वय कर दिया है।
लयात्मक रेखा , सौम्य और सहज रंगों से परिपूर्ण ये चित्र मनुष्य की उतकृष्ट उपलब्धि हैं । किसी राष्ट्र की पहचान उसकी समृद्ध कला-संस्कृती से होती है। कांगड़ा कलम के विकास की गति निरन्तर जारी है। पंडित सेऊ व उनके वंशज द्वारा कला रुपी पौधों को जीवित रखने के लिए कला के वरिष्ठ एवं कला पोशक व महान कला संरक्षक ओम सुजानपुरी ,चम्बा के विजय शर्मा ( पदमश्री) का महान योगदान रहा है।
भाषा संस्कृति विभाग (हिमाचल प्रदेश ) व हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी के प्रयासों से कुछ कलाप्रतिभाएं और प्रदर्शित हुई हैं। जिनमें राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता मुकेश कुमार ,धनी राम, प्रीतम चन्द,जोगिन्दर सिंह हैं।
कांगड़ा घाटी का परिवेश कला प्रतिभाओं का प्रमुख स्त्रोत है। इसकी मिट्टी में कलाकार उत्पन्न करने की क्षमता है। ज़िला प्रशासन कांगड़ा के प्रयासों से नई कला प्रतिभाओं का अंकुरित किया है, जिनमें कांगड़ा कलम की महान परम्परा को जीवित रखने की अपार क्षमता है।
ये सभी चित्र बही खातों के लिये बनाए गए विशेष प्रकार के हस्त निर्मित कागज़ों पर, जिन्हें सियालकोट कागज़ भी कहा जाता है, तैयार किये गये हैं। कागज़ को पहले एक सफेद द्रव्य से लेप दिया जाता है और बाद में शंख से घिस कर चिकना किया जाता है। इससे कागज़ मज़बूद और आकर्षक बन जाता है। रंगों को फूलों, पत्तियों, जड़ों, मिट्टी के विभिन्न रंगों, जड़ी बूटियों और बीजों से निकाल कर बनाया जाता है। इन्हें मिट्टी के प्यालों या बड़ी सीपों में रखा जाता है।
आजकल काँगड़ा शैली के चित्र हर प्रकार के कागज़ पर पोस्टर रंगों की मदद से तैयार किये जाते हैं। कलाप्रेमियों के लिये इनकी कीमत भी प्राकृतिक वस्तुओं से बने मूल चित्रों से कई गुना कम होती है। इन्हें हस्तकला की दूकानों, चित्रकला की दूकानों या पर्यटन स्थलों पर आसानी से खरीदा जा सकता है।
आजकल काँगड़ा शैली के चित्र हर प्रकार के कागज़ पर पोस्टर रंगों की मदद से तैयार किये जाते हैं। कलाप्रेमियों के लिये इनकी कीमत भी प्राकृतिक वस्तुओं से बने मूल चित्रों से कई गुना कम होती है।
काँगड़ा पेंटिंग्स को खरीदने के लिये ई मेल :- dc-kan-hp@nic.in पर संपर्क करें।